प्रस्तुत है एक कवि के अंतरमन मे बसे एक किसान के दर्द को ब्यान करती एक छंदमुक्त कविता। आपको लगे की इस कविता ने आपके किसान रूपी मन को छुआ है तो अपना आशीर्वाद अवश्य दें।
कविता : एक किसान
किससे कहूँ परेशान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
अन्न उपार्जन करता हूँ,
फिर भी भूखा मरता हूँ,
बूढ़ा पेंशन पाने को,
रिश्वत देता फिरता हूँ,
मैं भी कितना नादान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
किससे कहूँ परेशान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
सूखा कभी रूला देता है,
तूफां कभी उड़ा देता है,
कटी कटाई फसलों को भी,
दुश्मन कभी जला देता है,
किस्मत को कोसूँ या खुद को।
सोच सोच बहुत हैरान हूँ।।
किससे कहूँ परेशान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
कहने को अन्नदाता हूँ,
लेकिन नहीं विधाता हूँ,
सबको भाती मेरी मिहनत,
पर मैं किसको भाता हूँ,
दुनिया की नज़रों में मैं ही।
सबसे बड़ा धनवान हूँ।।
किससे कहूँ परेशान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
सरकारें आती हैं आकर,
पांच साल तक रहती हैं,
कौन मगर सुनता है जो भी,
आँखें मेरी कहती हैं।।
वो भविष्य की बातें करते।
बिखरा मैं वर्तमान हूँ।।
किससे कहूँ परेशान हूँ।
हाँ मैं एक किसान हूँ।।
रचयिता : हरेन्द्र प्रसाद यादव “फ़क़ीर”