भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,
अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥
शीत आतप, वात वरिषण,
ए दिन यामिनी जागि’रे।
विफले सेविनु कृपण दुर्जन,
चपल सुख-लव लागि’रे॥2॥
ए धन, यौवन, पुत्र परिजन,
इथे कि आछे परतीति रे।
कमलदल-जल, जीवन टलमल,
भजहुँ हरिपद नीति रे॥3॥
श्रवण, कीर्तन, स्मरण,
वन्दन, पादसेवन, दास्य रे।
पूजन, सखीजन, आत्मनिवेदन,
गोविन्द दास अभिलाष रे॥4॥
अर्थ
(1) हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ।
(2) मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभर के सुख हेतु मैंने वयर्थ ही दुष्ट तथा कृपण लोगों की सेवा की।
(3) सारी सम्पत्ति, यौवन, पुत्र-परिजनों में भी वास्तविक सुख का क्या भरोसा है? यह जीवन कमल के पत्ते पर स्थित पानी की बूँद जैसा अस्थिर हे, अतः तुझे सदा भगवान् भी हरि की सेवा व भजन करना चाहिए।
(4) गोविंददास की यह चिर अभिलाषा है कि वह भक्ति की निम्नलिखित नौ विधीओं में संलग्न हो, श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन, पादसेवन, दास्य, पूजन, साख्य एवं आत्मनिवेदन।