आलोक गौड़/National Thoughts – देश में फैली हुई कोरोना वायरस की बीमारी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम लोग इससे निपटने के लिए सोशल डिस्टेंटिग बनाए रखने पर जोर दे रहे हैं। मगर देश की तिहाई आबादी चाह कर भी इसका पालन नहीं कर सकती है। क्योंकि देश के लगभग 37 फीसदी परिवार एक कमरे के मकान में रहते हैं।
जबकि 32 परिवार दो कमरों के मकान में जैसे तैसे अपना गुज़ारा कर रहे हैं। एक परिवार के औसत सदस्यों की संख्या पांच या उससे अधिक होती है।ऐसे में यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि 10 गुना 10 या उससे भी छोटे से कमरे में ये लोग सोशल डिस्टेटिंग का भला किस तरह से पालन कर रहे होंगे। इतना ही नहीं जब ऐसे मकानों में रहने वाले खुली हवा में सांस लेने के लिए घर से बाहर निकल कर गली में आते हैं तो पुलिस उन पर डंडे बरसा कर उन्हें फिर से उसी दड़बेनुमा घर में धकेल कर वहीं रहने पर मजबूर कर देती है।
इतना ही नहीं न तो ऐसे लोगों तक अभी भी किसी प्रकार की मदद पहुंची है और न ही लाक डाउन की वजह से रोजगार का कोई साधन है। लाक डाउन के पहले चरण में सामाजिक संगठन व अन्य संस्थाओं की ओर से इनकी मदद करने की कोशिश की गई थी। लेकिन लाक डाउन की अवधि बढ़ाने के बाद से उन संगठन और संस्थाओं का मदद करने का जज्बा भी खत्म हो गया है।
जिसकी वजह से ये लोग अपने राज्य वापस जाने के लिए बुरी तरह से छटपटा रहे हैं। मगर उनकी ओर न तो केंद्र सरकार और न ही उनके राज्य की सरकार का ध्यान जा रहा है।सबसे दुखद बात तो यह है किउत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्थान के कोटा में फंसे अपने राज्य के छात्रों को वहां से निकाल कर उनके घर तक पहुंचाने के लिए तो केंद्र सरकार के आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए तीन सौ बसें भिजवा दी थीं। जबकि अमीर घरों के इन छात्रों को कोटा में न तो किसी प्रकार की परेशानी का सामना करना पड़ रहा था और न ही उनके पास साधनों की ही कोई कमी थी।
वह तो बस संकट की इस घड़ी में अकेलेपन से उकता कर अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहते थे। उत्तर प्रदेश सरकार के नक्शे कदम पर चलते हुए बिहार सरकार ने कोटा से अपने राज्य के छात्रों को उनके घर तक पहुंचाने का फैसला लिया है।मगर अपने राज्य के अप्रवासी मजदूरों को वापस लाने के बारे में इन राज्यों की ओर से कोई भी कदम नहीं उठाए गए हैं। जबकि इन लोगों की हालत दिनो बिगड़ती जा रही है।धनाढ्य और उच्च मध्यम वर्ग के लोग कोरोना वायरस से निपटने के लिए लाक डाउन की अवधि तीन मई के बाद भी बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। क्योंकि उनके पास न तो खाने पीने की वस्तुओं की कोई कमी और न ही संसाधन का अभाव।
मगर लाक डाउन की अवधि बढ़ाने से गरीब तबके और निर्धन वर्ग की कमर पूरी तरह से टूट जाएगी। क्योंकि इसके पास न तो खाने के पैसे बचे हैं और न ही आमदनी का कोई जरिया।अगर केंद्र और राज्य सरकारें तीन मई के बाद भी लाक डाउन जारी रखने का फैसला लेती हैं तो उससे पहले उन्हें इन लाचार लोगों को राहत पहुंचाने की दिशा में ठोस कदम उठाने के साथ ही उन्हें पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा। वरना ये लोग हर तरह का प्रतिबंध तोड़ कर अपने घर लौटने का प्रयास करेंगे और किसी के लिए भी उन्हें रोक पाना आसान नहीं होगा।