उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि वह एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व महसूस करते हैं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति की शिक्षा दी है…
नई दिल्ली: ‘Sisters and Brothers of America…’ महज 5 शब्द और स्वामी विवेकानंद ने जीत लिया था हजारों लोगों का दिल. साल था 1893 और शहर था शिकागो, अमेरिका. 11 सितंबर को वहां आयोजित विश्व धर्म महासभा का उद्घाटन होना था, जिसके लिए भारत से स्वामी विवेकानंद अमेरिका पहुंचे थे. ठंड के दिनों में गर्म कपड़े न होने की वजह से विवेकानंद को परेशानी तो हुई ही, साथ ही त्वचा के रंग के लिए भी उन्हें कई बार सुनना पड़ा. कुछ लोग उन्हें ब्लैक बुलाते थे तो कुछ नीग्रो. लोगों को यह भी लगा कि अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के बीच में स्वामी विवेकानंद कहां टिक पाएंगे. लेकिन इन सब बातों पर ध्यान कौन दे, जब आपके दिल में अपने देश को विश्व विजेता बनाने का जुनून हो.
11 सितंबर 1893 को जब विवेकानंद स्टेज पर खड़े हुए और सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका से बात शुरू की, तो वहां बैठे 7 हजार लोगों की तालियों से महासभा गूंज उठी. यह तालियां उस संन्यासी के लिए बज रही थीं, जो एक गुलाम देश का निवासी था और विश्व को बताने आया था कि भारत किसी से भी कम नहीं है.
5 साल तक पैदल चल देश को जाना था
स्वामी विवेकानंद के उस भाषण को 127 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी हम अगर स्वामी जी के शब्द पढ़ें तो तन-मन में अलग ही प्रकार की ऊर्जा आ जाती है. स्वामी विवेकानंद के शब्दों से अगर भारत को जानेंगे तो शायद देश के दिल तक पहुंच पाएंगे. क्योंकि विवेकानंद ने अपने भाषण में उस भारत का जिक्र किया था जिसे उन्होंने 5 साल तक पैदल चल कर जाना था. वह रास्ते में आने वाले पेड़ों के नीचे सोए, कई दिनों तक भूखे रहे. न जाने कितनी तपस्या के बाद वह उस भारत को समझ पाए, जिसका उन्होंने विदेशियों के सामने प्रतिनिधित्व किया.